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Saturday, March 27, 2021

लौट आना ही

शहर में आता है सन्यासी
आता है 'साधू' 
आता है मदारी,मजदूर
रिक्शावान
शहर में वे बसते हैं
जो जानते हैं -पहचानते हैं
सन्यासी का रूप
'साधू' का कमण्डलु
मदारी का डमरू
और मजदूर की कुदाल
गांव के लोग केवल एक ही
बात जानते हैं प्रारब्ध 
सन्यासी हो तो
साधू हो, मदारी हो, रिक्शावान हो
या हो किसान तो
लौट आओ कि
घर सोने से ज्यादा
मर जाने के लिए
सबसे मुफ़ीद जगह है।
(अप्रमेय)

Saturday, March 20, 2021

बेपरवाही

रास्ते अपने घर तक 
आने के बाद खत्म नहीं हो जाते
नींद में जाने के बाद भी
खत्म नहीं हो जाती तुम्हारी याद, 
पिछले बसंत उसने ही तो कहा था
हम रहें न रहें
ये पहाड़ ये झरने कुछ भी
खत्म नहीं होगा
सब कुछ रह जाएगा
एक-दूसरे की स्मृति में,
और अगर हम तुम भी न रहें
तो भी हमारे अनुपस्थिति में 
उपस्थित रहेगा सब-कुछ,
सुनों प्रिय
मेरे कमरे में मेरी जो तस्वीर
मफलर ओढ़े लगी मढ़ी है
उसे देखना और जाड़े की किसी शाम
उसे आलमारी से उसे निकाल 
लपेट लेना अपना गिरेबान 
खत्म तो कुछ भी नहीं होगा
पर बड़ी शिद्दत से बचाये रखना है
इस दुनिया के लिए बेपरवाही
किसी चाय की दुकान पर मफलर लपेटे
बेपरवाही से ठहाका लगाना और
बेपरवाही से ही सही
थोड़ा मुझे याद कर लेना।
(अप्रमेय) साधो...🙏

Sunday, November 15, 2020

दीपावली के बाद

दीपावली के बाद
---------------------------------------------------------
कल घर खड़े रहें हमेशा की तरह
पर दीप टिमटिमाते रहें
तितलियां उड़ती रहीं 
भौरे रस पीते रहें
और वृक्ष खड़ा रहा ठीक अपने पते पर,
जो झबराये हुए पुष्प हिल-डुल कर
बातें कर रहे थे 
उनमें से कुछ आज झर गए,
मैंने सुबह जब उठाया उन्हें अपने हाथों में
बिना विग्रह को चढ़ाये ही वे
प्रभु के चरणों में चढ़ गए,
तुम्हारी सुगन्ध मेरे पास है मेरे साथी 
तुम जब भी आना 
बिना मुझसे पूछे 
स्मृति द्वार के अंदर
प्रवेश कर जाना।
। अप्रमेय ।

Monday, October 5, 2020

चिड़िया

गला जब भी भरता है
अनगिनत नदियों का जल छोड़ कर
कोई चिड़िया अंदर चली आती है,
सबसे पहली बार 
इस दुनिया में जब 
गला भर आने की घटना घटी होगी
तभी आंखों का जन्म हुआ होगा !
आंखें दो आंखें भर नहीं 
चिड़िया है
जो पृथ्वी की भावदशा के दस्तावेज हैं
जिसे नई दुनिया के आदमी 
पढ़ना भूल गए हैं
(अप्रमेय)

Friday, September 18, 2020

गजल

कुछ कहने चलता हूँ
चुप्पी छा जाती है
गीत गाने उठता हूँ
आंख भर आती है,

रास्तों पर चलते हुए
घर की याद आती है
बिस्तरे पर लेटे हुए
जिंदगी सताती है,

इस शहर से उस शहर
रात कुछ बसर हुई
गांव से क्या निकले हम
फिर कभी न सहर हुई,

कोई पैमाना नहीं यह
बस दिल्लगी समझना
गजल हुई न हुई 
कोई फर्क नहीं, कोई फर्क नहीं!
(अप्रमेय)

Thursday, September 17, 2020

युद्ध

जिंदगी पकड़ती है ऐसे
जैसे किसी अजगर 
ने लपेट रखा हो,
सुबह-शाम एक अजीब सी उदासी से 
आंख चुराते रहने का सिलसिला 
अनवरत जारी है,
हमारे पंजे 
दिमाग के इशारों पर लड़ते हुए
ढीला पड़ जाते हैं
एक चाय की प्याली को भी 
अब थामे रख पाने की इच्छा नहीं करती,
बच्चे आते हैं अपनी पेंसिल को ही 
तलवार बना लेते हैं
मैं देखता हूँ और डरा हुआ उनको कुछ
कहते-कहते रुक जाता हूँ
वे आपस में युद्ध करते हैं
और जोर-जोर से हंसते हैं
मैं चुप रह कर भी
युद्ध के नाम से कांप जाता हूँ।
(अप्रमेय)

Sunday, September 13, 2020

मुद्दे

मुद्दे कम हैं
गिले और शिकवे
तो बिल्कुल नहीं
असर मेरा इतना भर है
कि बदनाम हूँ
जाने किसके लिए!
सुना है कभी कहीं किसी गली में
जब भी मेरी बात हुआ करती है 
वे मुस्कुराते भर हैं
और चुप हो जाते हैं
चुप रह
(अप्रमेय)

लिख रहा हूँ

इतने दिनों से लिख रहा हूँ
क्योंकि मुझे मालूम है
वे लिखना नहीं जानते
उड़ना जानते हैं 
तैरना जानते हैं
उदासी जानते हैं
पीड़ा जानते हैं
दुख जानते हैं पर
वे बुद्ध को नहीं जानते
गांधी को भी नहीं जानते
पता नहीं पर यकीं के साथ
कह सकता हूँ
मेरे देश के पशु-पक्षी
जीजस को भी नहीं जानते होंगे,
सुनो कोई अनुवादक है क्या
मेरे परिचितों में जो
इनकी स्थिति का 
अनुवाद कर सकें
दुख क्या होता है और 
प्रेम का क्या अर्थ है
इसका सही-सही 
हम सभी को
अंदाज़ा दिला सके।
(अप्रमेय)

कह देना उनसे

सुनो उनसे कह देना
अब पत्तों के झरने की आवाज 
नहीं सुनाई पड़ती
टूटते तारे अब 
मनौती पूरी नहीं कर पाते
फूल अब जड़ों की कहानी 
भौरों को बिना बताए 
रस भर पिला देते हैं
एक शहर से निकलते
दूसरे शहर तक जाते रास्ते
अब बिना चाय पिये
हांफ रहे हैं
चिड़िया चुप है
नदियों से उसने पानी पीना छोड़ दिया है
गिलहरी ने कुँए के अंदर 
बनाया है अपना घर
कल रात एक बुजुर्ग को
मैंने सुनाई अपनी बात
उसने कहा कवि हो ?
मैंने कहा नहीं 
पहले था कभी 
अभी फिलहाल
पागल हूँ।
(अप्रमेय)

ढल जाएगी शाम

शाम ढल गई
एक दिन मेरी भी 
ढल जाएगी जिंदगी
सुबह होगी कारवाँ होगा
और धूल की तरह
बवंडरों के माफिक जाने कहाँ
बिसर जाएंगी सबके बीच से 
मेरी यादें,
मैं सोचता हूँ सबके बीच से जाना
और खुद अपने-आपको
खोते हुए देखना 
कितनी सुंदर घटना है
जहां हर तस्वीर हर चेहरा मुझे
पकड़ता है भाव-विभोर होते हुए
मेरे अस्तित्व के एक-एक कतरे का
सूखा रंग उनके पास है
जब-जब आंख भरेगी
तब-तब सागर में लहरे उठेंगी
तुम जिसे भाषा में
कविता समझते हो
दरअसल वे जीवन की छुपी हुई औषधि हैं
जिसके सूत्र कविताओं के चित्र में
प्राचीनतम भाव-लिपि से अंकित हैं।
(अप्रमेय)

Saturday, August 15, 2020

जिनको बहुत जल्दी है

रुक जाओ अभी
बहुत गहमा गहमी है
जिंदगी पड़ी है यारों 
इतनी भी क्या जल्दी है,               
चीखते फिर रहे हैं जो
उनकी हरकतों को देखो
नाजायज़ की औलादे हैं           
इनको बहुत जल्दी है,
मुहब्बत हो सके तो कर 
इससे बड़ी इबादत कहाँ
सियासत तो केवल 
लोफरों की लामबंदी है।        
(अप्रमेय)

Thursday, August 13, 2020

किसके पास जाएं

शब्दकोष में देखने जाऊं
तो भाव बह जाएगा
कहानी जो एक दृश्य सी
व्याकुल है तुम्हारे
समक्ष आने के लिए
वह फिर कविता में नहीं
गीत के स्वरों में निबद्ध हो जाएगी,
इसलिए तुम 
उस शब्द को खोज लेना,
आम को डंडे में फंसा कर तोड़ा गया
थोड़ा छोटा ही सही
कैची से कुतर दी उसकी
नन्ही-नन्ही डंठलें,
टांगे से काटा गया पेड़
और कुदाल से 
उसकी जड़ों को उखाड़ दिया गया,
हां याद आ गया वह शब्द 
जो भूल गया था 
हमारी भोजपुरिया भाषा में उसे
लग्गी कहते हैं
तुम खोजना कि 
लग्गी के साथ-साथ
कैंची, टांगा और कुदाल को 
क्या-क्या कहते हैं ?
अभी तक तो भूमिका रही
अब कविता कहता हूं कि
जिन्हों ने अपने
दुख कहने के लिए
पाठशालाओं से 
नहीं सीखे हैं शब्द 
वह किस सरकार के पास जाएं
किस देवता के आगे सर झुकाएं !
मेरी मानों किताब लिखते वक्त
और शब्दकोष के लिए 
शब्द संग्रह करते वक्त
पाद टिप्पणी में और
अंतिम अक्षर के बाद कुछ जगह
खाली रखना
हां अपनी भूमिका में इस बात का
ज़िक्र अवश्य कर देना कि यह जगहें
सनातन रूप से खाली हैं
खाली ही रहेंगी।
(अप्रमेय)

Saturday, August 8, 2020

ताकि हम चुप-चाप बात कर सकें

मृत शरीर को 
तकिए की क्या आवश्यकता 
ये सवाल था एक मरे हुए 
व्यक्ति को देखकर जो मैंने 
उसके परिवार वालों से नहीं पूछा,
आज सुबह-सुबह 
फिर उसी सवाल ने मुझे घेर लिया
मुझे मालूम है इसका उत्तर
मुझे किसी ग्रंथ में नहीं मिलेगा
तभी अचानक एक छोटे से बच्चे के हाथ में
जब रक्षा सूत्र बंधा हुआ देखा
तो उसे पुचकारते हुए
अनायास ही पूछ पड़ा
यह क्या बांध रखा है बेटा ?
उसने कहा इसको बांधने से
भूत मेरे पास नहीं आएगा,
मैं सोच रहा हूँ तकिया, रक्षा सूत्र,
आदमी और मरे हुए आदमी के बीच
क्या फर्क है !
कुछ सवाल हैं जो सदा के लिए ही
अनुत्तरित रहने चाहिए
ताकि व्यक्ति एकांत में जा सके
अपने आप से चुप-चाप बात कर सके।
(अप्रमेय)

Thursday, July 30, 2020

स्वप्न

बारिश में
शहर की गलियों में
उतर आती है नदी,
एक छोटी बच्ची
कागज की नांव बनाए
तैराती है अपने सपनें
पानी धीरे-धीरे बह जाता है
किसी खेत में
नांव की वह चुगदी
सदा के लिए मिट्टी हो कर
पेड़ों या हरी-भरी घासों में 
तब्दील हो जाती है,
सपनें बोलते नहीं 
आदमी के अंदर एक दृश्य बनाते हैं
कभी-कभी मुझे लगता है
यह सारी वनस्पतियां 
किसी के देखे हुए स्वप्न हैं।
(अप्रमेय)

Saturday, July 25, 2020

देखना

महल की अटारी से नहीं
छप्पर की छेद से 
सितारों को देखना
ये अंधेरा कितना गहरा है
किसी गरीब की आँख से 
देखना
वह देश के सिपहसलारों 
की बात किया करता है
कुछ जरूरी सवालात उससे
जरा पूछ कर
देखना,
जो खोज रहे हैं राह
वहीं जहां चंद लोग पहुंचे हैं
उनकी बात करने के अंदाज़ को
जरा गौर से
देखना।
महल की अटारी से नहीं
छप्पर की छेद से 
सितारों को देखना
(अप्रमेय)


Thursday, July 16, 2020

मेरे न होने का अर्थ

मैंने अपने आप को हटा लिया
और कमरा भर गया हवाओं से
कोयल की गूंज, आसमां की शांति
और धरती की नमी 
धीरे-धीरे मेरे कमरे के सोफे पर बैठते 
हुए अपने पैर पसार लिए मेज पर
कोई चींटी उनके पांवों तले रौदी नहीं गई
सन्नटा मेरे न होने का
भर रहा था अर्थ
हर खाली पड़े बर्तनों में
घर के पिछवाड़े हरिश्रृंगार की छांव तले
जाने कहाँ से सूर्य एक चम्मच धूप लिए
कोई संदेशा ले आया,
मेरा न होना 
मेरे होने के अस्तित्व से गहरा है
ये जान कर मैंने मन ही मन
मृत्यु को गले लगाया।
(अप्रमेय)

बारिश के बाद

बारिश के बाद
---------------------------;
गद्य की चौहद्दी से दूर 
कविता के व्याकरण से पार
बारिश को देखना 
केचुए की तरह खेत से 
बाहर निकल आना होता है,
पेड़ की शाखाओं की तरह
एकदम गीला होकर भाव से गदराए हुए
साष्टांग मुद्रा में पड़ जाना होता है
बारिश में आज भीगते हुए
मैंने सुना भाषा को बरसते हुए
आसमान गरज कर उसे डांट रहा था
कुछ कहने से उसे रोक रहा था
पहाड़ों ने, पेड़-पक्षियों ने, तलहटी ने
सभी ने उसकी गर्जना को खारिज किया
भीग कर बारिश के साथ गप्पे लड़ाया
समुद्र और नदी-तालाब सभी तेजी से
लहरों में बुन रहे थे 
अपने-अपने राग-रागिनियाँ
बारिश झर-झर करते कह रही थी
अस्तित्व की कहानी
ईश्वर चुप-चाप सुन रहे थे 
अपनी भूली कहानी।
(अप्रमेय)

हम

छत मिले न मिले
आकाश हमारे सपनों में जिंदा रहेगा,
तुम अपने नाम के झंडे फहराओं
हम चिड़ियों के पंख को 
फहरता देखते रहेंगे,
तुम निकालते रहना फोड़ कर हमारे छत्ते
हम शहद सा जीवन के पेड़ में
इकट्ठे होते रहेंगे।
(अप्रमेय)

सफर में जिंदगी

सफर में जिंदगी
------------------------
सफर में जिंदगी और मैं 
अलग-अलग हिसाब से 
मिलते रहे
कभी पेड़ों के नीचे चुप-चाप
दाना चुगती चिड़ियों के पास
तो कभी सुबह की तैयारी में 
लटकते हैंगरों में आधे गीले आधे 
सूखते कपड़ों के पास,
जिंदगी की तमाम शक्ल 
आती रहीं और जाती रहीं
पर उनसे मन भर कभी 
मिलना नहीं हो पाया
सफर में हो जिंदगी 
तो अनायायास ही 
सफर में ही हो जाती है कविता 
मैं शीशे के सामने कभी- कभी 
छूता हूँ अपने हाथ-पाँव 
और धीरे से बरौनियों के नीचे 
आँखों के अंदर उतर कर ढूँढ़ता हूँ 
मंजिल का पता पर
वहां कोई टिकट नहीं मिलता 
जिस पर लिखा हो
शहर का नाम और वहां पहुँचने का समय 
सफर में जिंदगी और कविता 
कितनी दूरी और कितना भाव 
इकठ्ठा कर सकेंगे 
ये कौन जानता है !!!
(अप्रमेय )

एक आह

एक आह जो उठी 
बस इतना देखने भर से
कि इस महामारी में वह
रिक्शा चला रहा है,

सदियों से बैठे सर्प ने फिर
उठाया अपना फन
और डस कर फैला देना चाहा
व्याकरण का जहर,  

मैं चुप हूँ और कुछ भी नहीं लिखकर
बिना किसी लीपा-पोती के 
कवियों से क्षमा मांग रहा हूं
और कविता लिखने से 
फिलहाल इनकार कर रहा हूँ।
(अप्रमेय)

बारिश

बारिश को बारिश की तरह नहीं
शब्द के रूप में देखो 
धरती को सिर्फ धरती नहीं
एक कागज की तरह देखो
पौधों को सिर्फ पौधा नहीं
पूरी विकसित एक 
भाषा के रूप में सुनों
मेरी कविता को 
सिर्फ कविता नहीं
एक पागल का 
विलाप समझो।
(अप्रमेय)

पकड़ डीहा

पकड़ डीहा
---------------
कुछ नाम स्मृतियों में
ऐसे टंगे हैं जैसे 
सुबह टंगा रहता है सूरज
शाम टंके रहते हैं तारे,
कुछ आकृतियां पीछे से
झांकती हैं ऐसे जैसे कोई दुल्हन
निहारती हो राह अपने प्रियतम की,
एक धुन भैंस की पीठ पर सवार होकर
बांसुरी पर निकालता है 
कोई सांवला लड़का
उसका नाम नहीं पता मुझे
मैं आंखे बंद कर के 
निहारता हूँ मानचित्र
किसी उपन्यास के कवर पृष्ठ की तरह
सड़क के किनारे 
एक दीवार पर लिखा देखता हूं 
पकड़ डीहा।
(अप्रमेय)

Tuesday, May 26, 2020

सपनों में साकार किया

तुम आओगे नहीं
ये मुझे मालूम है
एक झबराये पेड़ को देखते हुए
मुझे ऐसा अनुभव हुआ
तभी जाने कहाँ से एक तितली
पत्तों के बीच से निकल पड़ी
और उड़ती हुई आंक गई
मेरे भीतर पीले रंग की स्मृति
मैंने चुप चाप शरण ली उस पेड़ की
दोपहरी की पीली धूप 
पीली छांव में बदल गई
पीला होता मेरा चेहरा
लोगों के लिए दुख का कारण बना
मैंने बुद्ध को याद किया
शिव को जपा
और उन सभी के साथ
पीले पड़ते सपनों को
सपनों में ही साकार किया।
(अप्रमेय)

Sunday, May 24, 2020

ढोंग

तुम्हारी सारी कथाएं 
महान बनने के ढोंग हैं
जो महान नहीं बन पाए 
मैं उन्हें बारम्बार प्रणाम करता हूँ
कथा के उन पात्रों की 
जिनकी लाशें भी चील-कौओं के काम आईं
कथा के उन पात्रों की भी जिन्होंने
बिना किसी दिव्यज्ञान के 
अपनी मौत मुकर्रर की 
और परवाह किए बिना
अपना काम किया
मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ,
तुम आकाशीय ज्ञान के
साथी हो मेरे भाई
जरा अपनी धरती पर 
कान सटा कर सुनना
जिसे तुम माँ कहते हो
वह कब से तुन्हें पुकार रही है
कुछ कहना है उसे इसके लिए 
एक भाषा तलाश रही है।
(अप्रमेय)

Saturday, May 16, 2020

ईश्वर डांट सुनना चाहते हैं

उन्होंने कहा ईश्वर वे चुप रहा
उन्होंने रचे पाठ वो सुनता रहा
गढ़ी मूर्तियां पहनाए वस्त्र
वह देखता रहा
सुबह-शाम गांव-गांव 
अब उन्हें छोड़
उन्हें सजाने वालों की 
चर्चा चलने लगी
यह सब सुनते, देखते 
मंदिर में खड़े देवता के प्रेम में
किसी ने रच डाला एक गीत 
दूसरे ने उसमें भरे कुछ स्वर
फिर धीरे-धीरे लोगों ने इस 
गूंज को बनाया मन्त्र और 
स्थापित हुआ एक  प्राणवान विग्रह
लोगों ने अपने अपने हृदय में
किए देवता के दर्शन
पहनाया एक दूसरे को माला
और अपने अपने कामों में लग गए
तब जब उन्होंने सजाया था ईश्वर 
कोई आकशवाणी नहीं हुई थी 
और अब भी वे चुप ही हैं
पर अब शायद लोगों ने यह जान लिया है 
कि गांव-गांव छप्पर-छप्पर
हर घर मे वे जन्म ले रहे हैं
सोहर सुनने के लिए
लोरियों को लय देने के लिए
शायद कभी वे मंदिर में रहते हों
पर नए सदी के भगवान को 
एकांत पसंद नहीं
वे अब घरों में रहना चाहते हैं
अपनी मां की डांट सुनना चाहते हैं।
(अप्रमेय)

Saturday, May 9, 2020

व्याकरण

व्याकरण के लोग 
शब्दों की थरथराती टांगों को
छड़ी की तरह पकड़े
हमेशा से देखते रहे आकाश
सदियों तक बच्चों की कई किस्तें 
उनके आकाश में निहारने के अर्थ को 
समझने में खप गईं

जिन्होंने नकल की ताबीज पहनी 
वे ही समझदार कहलाए
वे भी बड़े हुए आकाश को निहारते
और उन्होंने चली आ रही भाषा में कही
कुछ पुरानी हो गई भाषा की प्रतिध्वनि,

एक सयाने बच्चे ने उनमें से उन्हीं से 
पूछ ली तारों की कहानी 
और कहानी खत्म होने के बाद
अपने आप से किया एक प्रश्न
कि क्या पुरानी भाषा के समय
आकाश कुछ दूसरे रंग का होता था ?
तारे क्या और ज्यादा चमकते थे ?
भूख और प्यास क्या उन्हें 
हमसे अधिक सताती थी !
(अप्रमेय)

Sunday, May 3, 2020

शब्द और अर्थ

मैंने शब्दों को संभाला
उन्हें अपने हृदय की जेब में 
चुप-चाप रखते हुए 
प्रसन्न हुआ,

फिर कई रात एकांत में कोई 
स्वप्न सी छाया लिए
आता रहा मेरे सिरहाने,

मैंने एक रात घबरा कर 
उससे पूछ ही लिया 
कौन हो तुम ?
उसने कहा अर्थ !

मैंने उसे पुनः सुनने की कोशिश की
ऐसा लगा जैसे
वह अपनी ध्वनि में एक समय
कई अर्थों में बज रहा हो
और फिर मैं बेहोश हो गया,

सुबह होती रही शाम बीतती रही 
और रात इसी तरह 
घबराहट में पूरी तरह 
मेरे हृदय में धड़कती रही,

मैंने घबराते चीखते हुए कल रात
फेंक दिए वह शब्द जिसे 
चुप-चाप मैं उठा लाया था,

अगली सुबह जब नींद खुली तो
सूर्य मेरे दरवाजे पर 
रौशनी की गर्माहट को रोके 
खड़ा हुए था और अर्थ 
चुपचाप मुझे गोदी में संभाले
थपकियाँ दे रहा था।
(अप्रमेय)

Sunday, April 19, 2020

मेरे लौटने के बाद

मेरे लौटने के बाद
------------------------- 
तुम्हारे पास से 
लौटते हुए मुट्ठी बांधे
मैं ले आता हूँ शब्द
कागजों में उन्हें पुड़ियाते
और भागते हुए जंगलों की तरफ
इधर मैंने धीरे धीरे जाना 
ध्वनि का गर्भ

तुम्हारे पास से लौटते हुए मैंने सीखा 
शहर की आबादी से कैसे
निकाल ले आने हैं
कुछ अनाथ शब्द

मैं इधर अब उन्हीं अनाथ शब्दों की
तलाश में रहता हूँ
और मरघट के दरवाजे पर
धीरे-धीरे सरकते उन शब्दों को
भर-भर के ले जाता हूँ
जंगलों की तरफ,

पाठकों से बात दूं
कि जंगलों का व्याकरण अलग है
और कविता तो बिलकुल ही है अलग

मैं शब्दों से कविता का 
घोंसला बुनता हूँ जिसमें 
जन्म पाती है भाव की एक चिड़िया 
जो मेरे शहर लौटने के बाद
मुक्त आकाश में उड़ जाती है
उसका गुण-धर्म बन जाती है।
(अप्रमेय)

Friday, April 17, 2020

माँ

छोटा बच्चा पुकारता है
माँ....
उसके पीछे से आती है आवाज
आती हूँ ,

वह फिर पुकारता है
माँ....
इसबार उसके आवाज को 
अपनी आवाज की गोद में
बीच में ही थाम लेती है 
माँ....

जब जब बच्चा पुकारता है 
माँ....
तब-तब माँ के अतिरिक्त
पूरा अस्तित्व उतने काल के लिए
ठहर जाता है।
(अप्रमेय)

Tuesday, April 7, 2020

काल की किसानी

जो जो खड़े हैं
अपनी गंध के साथ
वे यह जानते हैं नहीं तो 
देर-सबेर समझ ही जाएंगे कि
पृथ्वी उनकी माँ है और जल पिता,

ऐसा भी होता रहा है कि 
अपने बीच के किसी क्यारी से 
कोई फूल मुरझा गया
उसके मुरझाने का दुख तो है ही पर 
एक बात जो समझ लेने जैसी है
वह यह कि कुछ भी यहां
वैसा नहीं होता जैसा
हमको समझाया जाता रहा है,

इसलिए हमनें एक मात्र
अग्नि को साक्षी मान कर  
सम्बोधित किया उन्हें गुरु,
यह वही है जिसने
शब्द को हमारी जिह्वा पर 
स्पर्श से हमारी व्याकुलता पर
और रूप से हमारे ध्यान को 
निर्देशित किया,

वह जानता है वायु के पास 
पंख नहीं हैं, न ही कोई चोंच है
वह बस हाहाकार करते आकाश से
निकल पड़ी है जिसे 
अभी पुनः रोपा जाना बाकी है
काल की किसानी की कहानी
हमेशा से अलग-थलग पड़ी रही
जिसे कभी भी किसी भी
इतिहास के पन्ने में 
दर्ज नहीं किया जा सका है।
(अप्रमेय)

Saturday, April 4, 2020

बूढ़ा बाप और पियक्कड़ बेटा

बूढ़ा बाप अपने हिस्से की 
बची खुशी को स्थगित कर देता है
अपने पियक्कड़ बेटे की खातिर,

बूढ़े बाप ने बचपन में
एक कहावत सुनी थी 
बाढ़े पूत पिता के कर्मे सो
अपने बुजुर्गियत के सारे बचे काम को
अपनी बूढ़ी पत्नी के हवाले कर
कुछ अपनी दवाइयों को न खरीद कर
चोरी से मंदिर में कुछ पैसे चढ़ा आया,

बूढ़ा बाप हर समय बैंक नहीं जा सकता
सो कुछ पैसे अपनी गांधी बनियान में 
घर के लोगों से छुपाए हुए है
मैं जानता हूँ अपने अनुभव से यह बात
कि वह इस पैसे को किसको देगा,

कल रात उसका बेटा दारू के नशे में
नाली से निकाला गया था
आज सुबह उसने अपने गेट के सामने 
जाम नाली को पानी की तेज धार से साफ किया,

बूढा होना और वह भी 
पियक्कड़ बेटे का बूढ़ा बाप होने में फर्क है
यह परकथा नहीं है
एक अनुभव है जिसकी कहानी
मेरे कविता के मंदिर में सुबह-शाम
उनसे मिलने के बाद
घंटे की तरह बज रही है।
(अप्रमेय)

प्रेम और आम का पत्ता

उसके कंधों का सहारा लेते      
एक गूंज की शक्ल सा
मैंने अपने आप को 
उसके साथ जाते देखा,
पर स्मृति में वहीं अब भी 
अटका हुआ हूँ जहां
चुप्पी ने एक घोंसला बुन दिया था,
इच्छा थी एक गीत गाने की 
गा न सका पर
उसकी धुन आकुंठ पंख फैलाए 
शब्दों की तलाश करते
आकाश में सूर्य की परिक्रमा कर रही है,
मैं नितांत परेशान सा ढूंढ रहा हूँ सहारा
न मंदिर, न बाबा, न चेला , कोई भी नहीं
जो सुने मेरी बात,
बाहर से घर आते हुए
घर के चबूतरे के पास अचानक
मिल गया गिरा पड़ा एक 
गदराया आम का पत्ता
पता नहीं उसने सुनी या नहीं
पर मैंने कही अपनी बात
उसके बाद मैं शांत हूँ
और अब जब मैं उसे अपनी किताब
के पन्नों के बीच रख रहा हूँ
तो सोच रहा हूँ कि 
बिना फल के मौसम में 
ये पत्ते क्या करते हैं
अपनी हरियाली को इतनी यातनाओं के बाद भी 
ये कैसे बचाए रखते हैं।
(अप्रमेय)

कोरोना 2

कोरोना-2
-----------------////------------
पहले चुप होता है आकाश
फिर पंछी उड़ना भूल जाते हैं
हिलती नहीं डालियां
जड़ें तोड़ देती हैं पाताल पहुंचने की 
अनवरत प्रतिज्ञा ,

मिट्टी अपना धर्म त्याग कर
गर्भ में तपिश देते बीजों को 
रखे रखे पथरा जाती है,

कानों में बजता है 
आठवें सुर पर अवतरित घण्टा,

अकाल में पड़ा आदमी 
इस अकाल के रहस्य को जानता है
मरने के पहले 
घड़ी दो घड़ी ही सही
दूसरे की कीमत पर
वह जी भर के 
जी लेना चाहता है।
(अप्रमेय)

चार साल की बच्ची और कोरोना

चार साल की छोटी बच्ची दुःखी होकर
अपनी माँ से सुन कर निश्चिन्त 
हो लेना चाहती है कि
गर्मी आएगी और 
कोरोना वायरस चला जाएगा,

मां कुछ भी कह देना नहीं चाहती
क्योंकि वह जानती है
अनादि दुःख और महामारी के दुख का अंतर
वह चुप है क्योंकि
सत्य कहा नहीं जा सकता
ये अलग बात है कि हमने
सुन रखा है कि शब्द साक्षी हैं
'अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी'

पर साक्षी होना देह के
दुख का निवारण नहीं
कुछ भीतर के
दुख से छुटकारा हो सकता है,

बच्ची कितने दुख में है
यह माँ को तभी पता चला 
जब शब्द अपनी अक्षमता के आवेग में
बह निकले उसकी आंखों से,

मैं सोचता हूँ कि क्या भाषा भी 
इसी अक्षमता की पुत्री है और
वृक्ष और फिर जंगल
नदियां सब कुछ जो काल के प्रवाह में
बह रहे हैं वह किस अक्षमता 
के भाई -बन्धु हैं!

मेरा समय आज अपनी अक्षमता पर
मुझसे सवाल कर रहा है कि कहो
हम ईश्वर के अक्षम पुत्र हैं या
वह हमारी अक्षम पिता ?
(अप्रमेय)

शरीर के बाहर आदमी

शरीर के बाहर आदमी
-------------------////-------------
शरीर के बाहर मनुष्य
और शरीर के अंदर मन
दोनों ही पूछते रहे सवाल 
मैं खुद भूल गया 
मुझे जाना किधर था 
या कहूँ भटकता रहा
दर-बदर,

नींद और बेहोशी दोनों ही 
ठीक समय पर मिलती रही 
दवाई की तरह,

आंखें भरती रहीं पर 
व्यर्थ हुआ उनका टपकना
कहीं भी नहीं मिली जमीं
न ही जन्म पा सका कोई
रुद्राक्ष,

सफर में आज की सुबह हुई
और दिख पड़ा आम का पेड़
राहगीरों ने कहा टिकोरा 
पर मुझे एक एक पत्ता अर्घा
और सभी टिकोरे दिख पड़ा
शिवलिंग।
(अप्रमेय)

जिंदगी को देखते हुए

आंख ही नहीं भरती
गला भी भर आता है
जहाँ अटा पड़ा हुआ है 
शब्दों का पहाड़,
वहीं अपनी जगह से 
गीली होकर खिसकती है
थोड़ी जमीं,
पहाड़ भी खिसक जाता है,

एक रास्ता खुल आता है छिद्र सा
जिसके बीच सीढ़ी बनाते 
चढ़ता है कोई 
गरुड़ सा पंख लिए,

हे प्राण! हे प्राण ! 
कोई पुकारता है उसे, 
ऊपर से देखने पर
दिख पड़ता है खेतों सा
जीवन
जिसने अपने हृदय में
संजोए रखा है
संयोगों के पेड़-पौधे,

थोड़ा गहरे और गहरे
देखने पर
तितलयों सा उड़ते 
दिख पड़ते हैं कुछ लोग
औषधि का रस चूसते 
और कुछ अपनी चिता की 
अग्नि के लिए
उन्हीं पेड़ों से लकड़ियां 
काट रहे होते हैं।
(अप्रमेय)

Thursday, March 26, 2020

कोरोना 1

कोरोना-1
-----------------////---------------------
एक गिलहरी जो 
मेरे अमरूद के वृक्ष पर अकसर
दिखती थी वह इधर कुछ दिनों से
नजर नहीं आ रही,

गिलहरी से दो बड़ी स्मृतियां जुड़ी हैं मेरी
पहली मेरे बचपन की और
दूसरी रामकथा की,

इधर तीसरी बात जो स्मृति नहीं है
जिसे आशंका कहना ठीक होगा
उसने कील से
महा त्रासदी के दरवाजे पर
नेमप्लेट की तरह ठोंक कर
टांग दिया है मुझे जिसके
पते पर लिखा है-

"गिलहरी और चमगादड़
चमगादड़ और कोरोना
कोरोना और चीन
चीन और भारत
भारत और मनुष्य
मनुष्य और मनुष्यता !"

एक छोटा बच्चा दूर से
दौड़ता आता हुआ
रुक जाता है उस नेमप्लेट के पास
जैसे दूर आकाश में कोई बादल
रुका हुआ सा धीरे धीरे
सांझ होते-होते खो जाता है।
(अप्रमेय)

Monday, March 2, 2020

कविता

पुकार
यहां हूँ और
चुप्पी,
ये तीन शब्द
महाकव्य हैं
मेरे लिए
क्योंकि
बचपन पुकारने में
जवानी बताने में
और चुप्पी
अब जीवन की
अंतिम कहानी
होती जा रही है।
(अप्रमेय)

Friday, February 28, 2020

होली 2

होली में दीप नहीं जलाए जाते
रंगोली भी नहीं बनाई जाती
कोई जब निकलता है होली के दिन
होली खेलने
तब कोई बहन रक्षा सूत्र नहीं बांधती
भाई के कलाई पर,
अभी जो कुछ आप ने सुना
वह कविता नहीं है
सवाल था बहुत पहले
जो बचपन में मैंने
अपने पिता से पूछे थे,

उन्हों ने होली के दिन
मुझे मां के पास भेज दिया था
इन्हीं प्रश्नों के साथ
मेरी माँ ने मुझे
होली की शाम बुकवा लगाने के बाद
कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था,
मंदिर में रोली से रंगोली बनाई
और दीप जला कर
आंखों में काजल लगाते कहा था
किसने कहा कि होली में
यह सब नहीं किया जा सकता।
(अप्रमेय)

Tuesday, February 25, 2020

होली 1

होली आने को है
और
मैं उस जगह कुछ दिनों से
रह रहा हूँ जहां
होली को अब भी अंग्रेज़ी कैलेंडर से नहीं
पलाश के खिलने से जाना जाता है,
मैंने सुना है फूलों से रंग बनाने की बात
आप ने भी जाना होगा
किसी के चेहरे के रंग से
उसके हृदय की बात,
होली आने को है इसलिए
कुछ और नहीं
केवल इतना भर कहूंगा कि
प्रेम जगत की एक अनिवार्य होली है
जिसका समय तय नहीं किया जा सका है
वह जब घटती है
आंखों में जल और चेहरे पर अनगिनत
भावों के रंग लगा जाती है
कोई बच नहीं सकेगा इस होली से
क्योंकि पलाश खिलते रहेंगे
रंग बनते रहेंगे और अगर
जीवन बचा रहा
मेरे जैसे कई दीवाने
होली खेलते रहेंगे।
(अप्रमेय)

Saturday, February 22, 2020

मुक्ति का एक दीप

स्मृतियां तारों सी चमकती हैं
अंतरतम आकाश में
एक चेहरा बीचों-बीच
चांद सा निहारता है मुझको
मैं प्रतीक्षा में हूँ कि
पूर्णिमा के दिन
मंत्रों के बंदनवार से
मुदित पुष्प सा रंग खिलाऊँ
महक उठूं खुद अपने तन में
सब मे एक सुवास जगाऊँ
बहुत हुआ अमावस अब
मुक्ति का एक द्वीप जलाऊं !!!
(अप्रमेय)

Friday, February 14, 2020

मैं मंसूर नहीं

जीवन वृत मेरा
लिखा नहीं जा सकता
इसलिए नहीं कि ये मुमकिन नहीं
इसलिए कि मैं जानता हूँ
लिखने को कुछ उसमें होगा नहीं,
मैंने इत्मीनान से इसपर सोचा
और चुप चाप खुद से
कुछ कहते रहने का
निर्णय लिया !!!
यह निर्णय ब्रह्म वाक्य है
दुनिया के लिए नहीं
मेरे लिए क्यों कि
यह मेरा सत्य है
जिसमें पाप, ईर्ष्या, मक्कारी
और वह सब कुछ जिसे
आप घृणित कहते हैं
कम-जरा नहीं कूट-कूट कर
भरा पड़ा है
मैं जानता हूँ यह कि इसके नाते
मेरा मंसूर की तर्ज पर
कत्ल किया जा सकता है
पर मैं यह भी जानता हूँ
कि मैं मंसूर नहीं।
(अप्रमेय)

Friday, February 7, 2020

समझ सको तो कविता नहीं तो अंगारा

झोपड़ी नाँव और साधू
हमेशा वीराने में होते हैं
इस बात को कहते हुए
बस एक सुधार करना चाहता हूं
झोपड़ी अब शहर के बीचो-बीच
सियासत की मुकुट होटीे है,
इसे तुम अगर समझ सको तो
यह एक कविता है
नहीं तो आग उगलती अंगारा।
(अप्रमेय)

वसन्त आ चुका है

बाहर बे मौसम बारिश हो रही है
सुना है इस साल भी
कई लोग ठंड से मर गए,
एक बुजुर्ग ने कभी मेरे इस वक्तव्य पर
मुझे ठीक करते हुए कहा था
ठंड से कभी किसी अमीर को
मरते हुए सुना है ?
यही सोचते हुए हर साल की तरह इस साल भी
वसंत आ चुका है
कभी मैंने एक कविता लिखी ही नहीं
गाई भी थी कि
तुम मनाओ वसन्त हम मनाएंगे फिर कभी
का स्वर अब भूलता जा रहा हूँ
एक गूंज कानों के अंदर बराबर बजती है
डॉक्टर कहता है यह एक रोग है
मनोवैज्ञानिक इसे मनोरोग की श्रेणी में डालता है
एक बाबा-फकीर सा इसे
अनहद नाद कह कर मुस्कुरा देता है
मेरी बूढ़ी माँ कुछ नहीं कहती
मुझे देखती है और अपने आँचल से
मेरे कानों को ढक देती है।
(अप्रमेय)

Tuesday, January 28, 2020

जिंदगी और पतंग

बच्चे मांगते हैं एक या दो रुपए
पतंग के लिए
उनकीे नन्हीं हथेलियों पर गोल सिक्के
पूरी पृथ्वी का नक्शा पतंग सा
बदल देते है,

हाथ में मांझा और सद्दी लिए
पतंग को उससे जोड़ते
गांठ लगाते हुए वे तोड़ते हैं
रिश्तों में गांठ लग जाने वाला
पुराना मुहावरा,

आकाश में पतंग उड़ाना
हमें नहीं आता
शुरुवात में बच्चों को भी नहीं आता
पर बच्चे पतंग उड़ाते हैं
आकाश से बतियाते हैं
उनके पास जाने पर वे पूछते हैं
और कितने ऊपर
पतंग जा पाएगी काका।
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(अप्रमेय)

गुम हो चुका है

इस भीड़ में
गुम होता हुआ मेरा चेहरा
रात के एकांत में
परिंदे सा उड़ता हुआ
अचानक मेरे चेहरे पर चस्पा हो जाता है,

धीरे धीरे उसकी सांस
मेरी आत्मा को गुब्बारे सा फुलाती है
मैं उस परिंदे का नाम नहीं जानता
कोई भी नहीं जानता उसको
उसे जानूं, दर्ज करूँ इससे पहले
रात और गहरा जाती है
सुबह हो जाती है.....
मेरे सामने एक सर कटी भीड़
कुछ इधर-उधर तलाशती है
बार-बार कोई नाम पुकारती है।
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अप्रमेय

सफर

सफ़र बहुत लंबा रहा छांव दिखी ही थी
कदम रुके नहीं और रस्ते बेहिसाब आए,

फ़ुरसत कहाँ कि करूँ ज़माने का हिसाब
तुम याद जो पल-पल बेहिसाब आए,

अब्र सा उठ जाने की जद्दोजहद में
टूट के बिखरे हम और ग़म बेहिसाब आए,

ख़्वाहिश में राहत मील के पत्थर की सी अटकी रही
सफ़र बढ़ता ही रहा सफ़र बेहिसाब आए,

ग़ज़ल लिखूं के ग़ज़ल पढ़ू या ग़ज़ल जियूँ 'मिसरा'
उनकी आँखों की तकरीर में डूब हम बेहिसाब आए,

(अप्रमेय)

Sunday, January 12, 2020

कविता में मोची

कविता में मोची
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वह चमड़े को खुरचने के पहले
नापता है जूते की लंबाई और चौड़ाई,
सोल लगाने के ठीक पहले
अपने औजार को पत्थर पर धार लगाते
वह मेरी आँखों से उतर कर
मेरी इच्छाओं का भी अनुमान लगा लेता है,

सलीके से पर थोड़ा बेदर्दी से
खुरच रहा है वह अपने हाथों में लिए
किसी बेनामी औजार से चमड़ा,
मुझे किसी स्कूल में उस औजार का नाम
पढ़ाया नहीं गया पर हां
शब्दकोश में शायद उसका नाम लिखा हो,

मैं खुरचे जा रहे उस चमड़े की
पीड़ा महसूस कर पाता हूँ
पर अचानक तर्क से चारों तरफ
कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि के अंदर कर्ण सा
घिर जाता हूँ,
नाली के ऊपर अपनी दुकान पर
मोची ने लगा रखी है
अपने भगवान की फ़ोटो जिसपर
अनायास निगाह जाती है मेरी जहां
चमड़े की पीड़ा और ईश्वर के होने
दोनों पर ही प्रश्न-चिन्ह सा
चित्र बना जाती है!!!!
(अप्रमेय)

Monday, January 6, 2020

रुकी हुई है यात्रा

अंदर ही अंदर वह अपनी
शर्मसार आंखों से झांकती है मुझे
और कतराता रहा हूँ मैं उससे
बाहर ही बाहर,

बहुत सी ऐसी पंक्तियां
इसलिए हो जाती हैं लिपि-बद्ध
क्योंकि हम उन्हें मन ही मन
फेंक आते हैं हृदय के पार,

वह ढहती हैं , गिरती है
और उनके साथ
बच जाता है कुछ
जो कभी-कभी गुनगुनाई जाती हैं
महफिलों में सुरीली आवाज के
कैदखाने से,

दुःख मन का जो हम
कह नहीं पाते वह अंदर
स्वांसो के बीचों-बीच
मील का पत्थर बन
रोकता है मेरी यात्रा।
(अप्रमेय)

Saturday, January 4, 2020

हाइवे पर सन्यासी

हाइवे पर सन्यासी
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गांव के चबूतरे पर
खलिहान के बीच
कहीं पेड़ की छांव में
या शहर के चौराहों, गलियों
के बीच से गुजरता हुआ सन्यासी
कहीं भी दिख जाता है।

सन्यासी कहता नहीं कुछ
आदमी ने कहा है हमेशा
उसके बारे में,
पहाड़, गुफा, चमत्कार
माला, चंदन, खड़ाऊं
जाने कितने प्रतीक चिपके हैं
उसके साथ,
मैं जानना चाहता हूँ इन प्रतीकों
का भाग्य उन्हीं की जुबानी
जो उसके साथ डोल रहें हैं
सदियों से इधर से उधर पर
वे भी सन्यासी की ही तरह
कुछ बोलते दिखते नहीं,

अभी तेज दौड़ती रफ्तार के बीच
हाइवे पर चल रहा है सन्यासी
हाइवे ने पूछा नहीं और
सन्यासी ने भी शायद बताया नहीं,
बिना उसे बताए और खुद भी बिना जाने
मैं सोच रहा हूँ
जा कहाँ रहा है सन्यासी ?
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(अप्रमेय)

उदास हो जाता हूँ

उदास हो जाता हूँ
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यहीं पास में तना है बादल
यहीं बाहर खिड़की से
बह रही हवा,
यहीं उतर आएगी रात चाँदनी
यहीं सुबह से बाहर झबराये पेड़ से
पुकारेगी कोयल,

यहीं से हां यहीं से
देखते देखते
धीरे-धीरे हम हो जाएंगे बिदा,

किताबें कहती हैं
कुछ खत्म नहीं होता
मैं जानता हूँ यह वाक्य
समूची सृष्टि का
सबसे भ्रांत वाक्य है
इसलिए
कविता में इसे नारे की तरह दोहराता हूँ
कि अपने आप को धीरे धीरे
खत्म होता हुआ देख
उदास हो जाता हूँ!!!
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अप्रमेय

रात

रात
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शहर के मुहाने
रात अचानक उतर आई थी,

थोड़ा और आगे
सरसराती हवाओं के साथ
वह मन्त्र दोहरा रही थी,

मन्त्र चलता रहा वह बढ़ती रही,
खलिहान पार कर के वह अब
मुझसे दूर पेड़ों के साथ आसन जमाए
ध्यानस्थ हुई जा रही थी,

सुबह टहलते वक्त मेड़ों के इर्द-गिर्द
निर्वाण सी, मुक्त सी, नहीं-नहीं
ओस सी ठंडी वह मुझसे बिना कुछ कहे
कुछ कही जा रही थी।
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अप्रमेय

नव वर्ष की मंगल कामनाएं

चली आती ही है चिड़िया रोज
हमारे छत पर अनाज के बहाने,

हम भी तो उनके बाग गेंद ढूंढने के बहाने
इधर-उधर निहारते
आम के पेड़ से टिकोरे
तोड़ ही लाते थे,

छांव के बहाने ही सही दौड़ती सड़क पर
रुक ही जाते हैं  राहगीर, गाय-गोरु और
ठेलेवाले!

परदेस में बगलगीर को सुबह टहलने के ही बहाने
नमस्कार करते हम उनके परिवार का
हिस्सा बन ही जाते हैं,

मंच पर बाजा रखने के बहाने
एकाध सुर दबाते चेले
धीरे-धीरे गुर जान ही जाते हैं!

नए वर्ष के बहाने ही सही
हम सभी एक दूसरे की सलामती की दुआ
कर ही आते हैं।
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अप्रमेय

जो दिखा मुझे

एक सादे पन्ने पर
मौलवी लिखता है अल्लाह
पंडित लिखता है भगवान
चित्रकार बनाता है चित्र
गवैये स्वर के पलटे और
बनिया लिखता है हिसाब,

एक बच्चा सादे पन्ने को
उठाता है अपने हाथ
मिचोड़ कर उसे
बनाता है गेंद
और उसे आकाश में उछाल कर
जोर जोर से हंसते-खिलखिलाते हुए
पूरी पृथ्वी को अपनी गूंज से
भर देता है।
(अप्रमेय)

Monday, November 11, 2019

पागलपन

पागलपन
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इधर बहुत दिनों से
चिड़ियों ने मेरी खिड़की के पास
आवाज नहीं लगाई,
पीपल के पत्ते उड़ कर
नहीं लाए कोई संदेसा
मेरे दरवाजे के पास,

इस बरसात झिंगरो और मेढकों ने भी
नहीं सुनाई कजरी,

आकाश ने भी गरज कर
कोई डांट नहीं लगाई,

इस वसंत फूल तो खिले
पर किसी ने इत्र का छिड़काव
नहीं किया मुझपर,

और इस होली पलाश भी
उतरा नहीं मेरे माथे पर
अबीर लगाने,

मैं सोचता हूँ और चुप
हो जाता हूँ, फिर
धन्यवाद देता हूँ कविता को
कि किसी से कुछ कहने के बजाए
कुछ लिख देना कैसे
औषधि बन जाता है
पागलपन से बचने के लिए।
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(अप्रमेय)

प्रार्थना

बिना शब्द
बिना ध्वनि
बिना इशारे के
मैं तुम्हें पुकारना चाहता हूं,
परत दर परत
आवरण उतरे कुछ ऐसा
फ़ना हो जाना चाहता हूं।
(अप्रमेय)

जिंदगी

जिंदगी भागती जाती है
और हम वहीं ठहरे रहते हैं
अपने-अपने मकानों के
दीवारों के बीच,

अपनों कपड़ों के बीच
उनके रंग का क्षीण होना
हमें तब तक नहीं दिखाई पड़ता
जब तक हमारी आंखें
अनंत के विस्तार को झांखने
हमसे दूर नहीं चली जातीं,

हमारा रूपया हमारे ही चिता
को जलाने के काम आएगा
और हमने जाने-अनजाने
जो खिंचवाईं हैं तस्वीरें
उनमें से जो उन्हें पसंद आएंगी
केवल वही दीवार पर टांगी जाएंगी,

हम यह नहीं समझ पाते
जानते हुए भी कि
उम्र भर हमारे जाने का प्रयोजन
सिर्फ इसलिए बना रहता है
क्योंकि हम जानते नहीं
कि जाना किसे कहते हैं।
(अप्रमेय)

चूक जाता हूँ

तुम्हें जिस तरह मुझसे
प्रेम मिलना चाहिए
वह नहीं दे पाता,
मैं सोचता हूँ कि मैं
कितना अभागा हूँ,
मैं इस सत्य को नकार जाता हूँ
और इससे बच सकूं इसके लिए
अपने चित्त को ऊंचा उठाने
की फिक्र में लग जाता हूँ,
ईश्वर के अलावा कोई सहारा नहीं दिखता!
मैं उसकी शरण में चला जाता हूँ
और एक बार फिर तुम्हें
प्रेम करने से चूक जाता हूँ।
(अप्रमेय)

सोचता हूँ

सोचता हूँ बचपन में
मुझसे नहीं लिखवाई गई स्वरचित
कोई कविता
सो आज लिख रहा हूँ
कविता,

सोचता हूँ मुझसे अगर
किसी ने भी ठीक से
कर लिया होता प्यार
तो आज शायद सभी से कर रहा होता
प्यार,

सोचता हूँ अच्छा ही हुआ
जो स्कूल की कक्षाओं में
ईश्वर पर मुझसे नहीं
पूछा गया कोई
सवाल।
(अप्रमेय)

Saturday, October 19, 2019

चुप रहो

अभी सब स्थगित है
सिवाय चुप रहने के
मुझे मालूम है यह चुप्पी औषधि है
बेमौत मरने से बचने के लिए
मैं खुश हूँ, नहीं-नहीं चुप हूं
और तुम्हें भी
भेज रहा हूँ मौन आमंत्रण
इच्छा मृत्यु की तलाश करो
ईश्वर चुप है तुम भी चुप रहने का
अभ्यास करो।
(अप्रमेय)

Wednesday, July 10, 2019

बच्चे के बहाने

सम्बन्धों से जीवन
और राजनीति से
संसद चलती है,
मैंने एक नन्हे बच्चे को
चलते देखा
चलते हुए लड़खड़ाते
उसे गिरते फिर उठते देखा,
मैंने इस बच्चे के बहाने
जीवन के परे
और संसद के बाहर
ईश्वर को देखा।
(अप्रमेय)

Sunday, June 30, 2019

उपनिषद अभी लिखा जाना बाकी है

एक अंग्रेजी माध्यम से
पढ़ रहा बच्चा मुझसे पूछता है
चौरासी किसे कहते हैं अंकल,
मैं उसे बताता हूँ और अचानक
चुप हो जाता हूँ,

धीरे से इतिहास अपना
पीछे का किवाड़ खोलता है
और चौरासी के दंगों में मुझे शामिल कर
मेरे छाती पर ख़ंजर भोंक देता है,

पुनर्जन्म लेकर पुनः
मैं पाठशाला में पहाड़ा पढ़ते हुए
जोर जोर से दोहराता हूँ
"बारह सत्ते चौरासी"
और अपनी उम्र से चौरासी को
घटा रहा होता हूँ,

मुझे नहीं मालूम चौरासी के हो रहे
बुड्ढों का हाल पर
आने वाली सदी में
बुड्ढे बहुत ज्यादा होंगे
और दुख भी उससे ज्यादा होगा,

निन्यानबे के चक्कर से
चौरासी का खेल बड़ा अबूझ है
जिसपर एक उपनिषद
लिखा जाना अभी बाकी है।
(अप्रमेय)

Friday, June 14, 2019

लोक

इन पहाड़ों-जंगलों के बीच
पतली पतली रेखाओं सा
किसने गढ़ा मार्ग!!!
किससे पूंछू इस वीराने में???
और सहसा पत्तों सा
सरसराता है स्मरण में कोई गीत
उत्तर मौन में उतर आता है
फिर लोक हृदय में
प्राण-प्रतिष्ठित हो कर
शिवलिंग सा ठहर जाता है।
(अप्रमेय)

पेड़ और आदमी

सतपुड़ा के जंगल से गुजरते हुए
मुझे ख्याल हो आया
पेड़ों की गठान
और उनकीे हस्तरेखा सी
खींची हुई टहनियां,

आदमी जितने होंगे
उतने ही खाली दिखेंगे
पत्तों से पेड़,

पेड़ आदमी के जीवन के फलादेश हैं
जिनके पत्तों जैसे शब्द
आदमी पर लगे श्राप को
सोखते हुए सूखते हैं और समय से पहले
मिट्टी में गुम हो जाते हैं।
(अप्रमेय)

Saturday, June 1, 2019

अलाव और आलाप

मैंने पढ़ा एक शब्द
अलाव
फिर अचानक एक शब्द
आलाप
जाग उठा अंदर अंतस में
मैंने कविता के दरवाजे को
खटखटाया
और उसने लय में
इन दोनों शब्द की आत्मा
ठंड में ठिठुरते
किसी बेसहारा की
कंपकपाती आवाज में सुनाया।
(अप्रमेय)

Saturday, May 18, 2019

बहुत दिन हुए

बहुत दिन हुए
कुछ लिखा नहीं
असल में कुछ लिखना
लिखना नहीं, तुम्हें
याद करना होता है
याद करते हुए तुम्हें लिखना
तुम्हारे साथ न होने को
भूल जाना है
भूल जाना मनुष्यता के लिए
वरदान है
ईश्वर ने इसे सबसे पहले
अपने ऊपर आजमाया
हमें भूल कर
अपनी सर्वज्ञता का
आभास दिलाया।
(अप्रमेय)

Saturday, May 11, 2019

आदमी

उसने सलीके से लगायाअपना मेज
एक किनारे कलमदान और
एक किनारे कुछ चित्र,
शब्द नहीं हैं वहां उसकी दुनिया में
अन्तस् में कुछ शब्द जैसे चूहा,खरगोश
बिल्ली और शेर सम्हाले
वह बड़ा हो रहा है
धीरे धीरे घेर लेंगे उसे शब्द
और मेज पर फिर वह निहारेगा मानचित्र
जानेगा लोकतंत्र, नीति और धर्म
बच्चा फिर बड़ा हो जाएगा
और कभी नहीं हो सकेगा
वह आदमी।
(अप्रमेय)

Saturday, May 4, 2019

मैं तुम्हें याद करता हूँ

लिखे शब्द
वस्तु नहीं
रूप नहीं
रंग नहीं
ध्वनि भी नहीं
फिर भी स्मृति के सहारे
ध्वनि के रंग से
रूप और वस्तु
हो जाते हैं,
इसी तरह
मैं तुम्हे याद करता हूँ
और तुम्हारे साथ होते हुए
तुम सा हो जाता हूँ।
(अप्रमेय)

Sunday, April 21, 2019

गिलहरी

तुम अभी एक गिलहरी सी
पेड़ों से उतर आई
मैंने लोक की
उस कथा को याद करते हुए प्रणाम किया
पुल निर्माण में तुमनें
राम का जो साथ दिया
शिव का त्रिपुंड कैसे जीवित हो उठा
राम की अंगुलियों के सहारे
पीठ पर तुम्हारे,
मैंने राम के सहारे सीता को
और सीता के सहारे
फिर तुम्हें याद किया।
(अप्रमेय)